जनश्रुतियों के अनुसार जैन तीर्थ नाकोड़ा का अस्तित्व ईसा की तीसरी शताब्दी से पूर्व वीरमपुर नगर के रूप में रहा है। वीरमपुर नगर की स्थापना मालव जैन राजा के पुत्र वीरमदत्त ने की थी और इनके भाई नाकोर सेन ने नाकोर नगर (नाकोड़ा गाँव) की स्थापना की। तब से लेकर वीरमपुर नगर में वीरमदत्त द्दारा बनाया आठवे जैन तीर्थन्कर श्री चन्द्रप्रभ जी का मंदिर कई बार जीर्णोद्दार होने के बाद प्रतिष्ठा होने पर अस्तित्व में वि.सं. 909 से पूर्व तक रहा। जब वि.सं. 909 में मूलनायक रूप से चौबीसवें जैन तीर्थन्कर श्री महावीर स्वामी की मूर्ति यहाँ स्थापित होने पर इस तीर्थ के मूलनायक श्री महावीर स्वामी रहे। वि.सं. 1223 तक जीर्णोद्दार होने के बाद तक रहे।
वि.सं. 1280 में जब मुगल बादशाह आलमशाह ने इस तीर्थ क्षेत्र पर आक्रमण किया तब यह तीर्थ उजड़ गया और यहाँ की जैन प्रतिमाओं को नाकोरसेन के बसाए नाकोर नगर (वर्तमान सिणधरी के पास आए नाकोड़ा गाँव) के सुरक्षित कालीद्रह (नागद्रह) तालाब में छिपा दिया। वि.सं. 1429 में इस तालाब से श्यावर्णी श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा मिली और वीरमपुर (नाकोड़ा) मंदिर में प्रतिष्ठित करने पर यह श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथजी के नाम से तीर्थ पुनः आबाद हो गया। लेकिन वि.सं. 1443 वैशाख शुक्ल 13 को मुगल बादशाह बाबाशाह (बाबीजान) के आक्रमण के कारण यह तीर्थ फिर उजड़ गया।
वि.सं. 1511 में रावल वीदा द्दारा पुनः वीरमपुर को बसाया गया। उजड़ा वीरमपुर वापिस आबाद होने पर अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के स्वप्न संकेत से पुनः श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा कालीद्रह (नागद्रह) तालाब से प्राप्त हुई और आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरिजी ने वि.सं. 1512 में वीरमपुर में इसकी पुनः प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद यह तीर्थ पुनः प्रकाश में आया। जो सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्थ एवं अठाहरवी शताब्दी के आरम्भ में यहाँ के नगर सेठ नानगजी संखवाल (संखलेचा) के सिर के लम्बे बालो की चोटी का शासकीय राजकुमार द्दारा अपने घोड़े पर बैठने वाली मक्खियों को उडाने के लिए झंवरी बनाने की घटना ने इस तीर्थ को उजाड़ दिया। नानग सेठ यहाँ से 2700 से अधिक जैन धर्मावलम्बियों के परिवार के साथ तीर्थ यात्रा का बहाना बनाकर जैसलमेर आदि क्षेत्रों में बस गए । वीरमपुर (नाकोड़ा पार्श्वनाथ) पुनः उजड़ गया जो अब तक विकसित होने के बाद भी आबादी के रूप में आबाद नहीं हुआ।
सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्थ से लेकर बीसवीं शताब्दी के मध्यान्त तक यह नाकोड़ा तीर्थ (वीरमपुर) प्राकृतिक थपेड़ों को सहता हुआ जीर्ण-शीर्ण स्थिति में आ गया। प्रथम बार नाकोड़ा अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के स्वप्न संकेत के बाद वि.सं. 1958 में जैन साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी यहाँ पधारी और वि.सं. 1960 में इस तीर्थ का जीर्णोद्दार करवाना आरम्भ कर दिया। जीर्णोद्दार होने के बाद वि.सं. 1991 माघ शुक्ल 13 को पन्यास श्री हिम्मतविजयजी (आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरिजी) से इसकी प्रतिष्ठा करवाने के बाद से लेकर अब तक यह तीर्थ दिनों दिन विकास एवं विस्तार की ऊंचाईयों को छू रहा है। अब इस तीर्थ की यात्रा पर प्रतिवर्ष हजारों श्रद्दालू भक्त आते रहने के कारण तीर्थ की आय में बढोतरी भी होने से तीर्थ विकास के नए - नए आयाम खड़े कर उत्थान की ओर अग्रसर हो रहा है।