नाकोड़ा पार्ष्वनाथ एवं नाकोड़ा भैरव के नाम से नाकोड़ा तीर्थ को प्रसिद्धि दिलाने में आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वि.सं. 1443 में नाकोड़ा अर्थात् वीरमपुर पर मुगल आक्रमण के कारण यहां प्रतिश्ठित श्री नाकोड़ा पार्ष्वनाथ प्रतिमा को पुनः सिणधरी के पास आये नाकोड़ा गांव के नागद्रह तालाब में सुरक्षा के लिये छिपा दिया। नाकोड़ा अधिश्ठायक श्री भैरवदेव द्वारा दिये स्वप्नानुसार जिनदत्त सेठ को इस मूर्ति का यहां होने का स्वपन संकेत मिला। तब आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि ने विधि विधान के साथ प्रभु भक्ति करके मूर्ति को नागद्रह तालाब से बाहार निकाली और अपने सिर पर रखकर वीरमपुर वर्तमान नाकोड़ा तीर्थ में लाकर पुनः वि.सं. 1512 में प्रतिश्ठित किया। इस अवसर पर बाल स्वरूप धारण किये श्री भैरवजी नृत्य करते हुए मूर्ति के आगे - आगे चलते रहे।
श्री नाकोड़ा पार्ष्वनाथजी की प्रतिश्ठा के साथ आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि ने वर्तमान श्री पार्ष्वनाथ मंदिर के प्रवेष द्वार के बाहर दाहिनी ओर जहां इस समय श्री हनुमानजी की प्रतिमा प्रतिश्ठित है वहां श्री भैरवदेवजी का स्पूत स्थापित किया। नाकोड़ा पार्ष्वनाथजी की प्रतिमा सिणधरी के पास आये नाकोड़ा ग्राम के नागद्रह तालाब से अपने सिर पर धारण कर यहां लाने वाले आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि की प्रतिमा के सिर पर श्री पार्ष्वनाथजी की मूर्ति बनी हुई है। आचार्य श्री कीर्तिरत्नजी का संसारिक नाम देल्हा (देल्हाकुमार) था। आप का जन्म देपमल्ल की धर्मपत्नी - देवलदे की कोख से वि.सं. 1449 चैत्र षुक्ला अश्टमी षुक्रवार को कोरटा में हुआ। कुछ लोगो का मत है कि आपका परिवार महेवा (मेवानगर) में आकर बस गया था अतः आपका जन्म महेवा मे हुआ। आपने वि.सं. 1463 आशाढ वदी 11 को आचार्य श्री जिनवर्धनसूरि से महेवा मे ही दीक्षा ग्रहण की और वि.सं. 1470 को पाटन में आपको वाचक पद से अलंकृत किया। वि.सं.1480 वैषाख सुदी 10 को आपको जिनभद्रसूरी ने महेवा में उपाध्याय पद प्रदान किया। जैसलमेर मे आपने वि.सं. 1473 में लक्ष्मण विहार प्रषस्ति एवं 1476 में अजितनाथ जयमाला की और 1495 में नेमिनाथ महाकाव्य की रचना की। वि.सं. 1497 माघ सुदी 10 को जैसलमेर मे आपको आचार्य पदवी प्रदान यात्रा संघ निकाला। वि.सं. 1525 वैषाख वदी पंचमी को महेवा में आपका समाधिमरण कालधर्म स्वर्गमास हो गया। उस समय श्री नाकोड़ा पार्ष्वनाथ तीर्थ मंदिर के सभी दरवाजे स्वतः ही बंद हो गये और मंदिर पर स्वतः ही दीप पंकित्यां जगमगाने लगी।
आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि की स्मृति में आपके संसारी पक्ष ने जहां आपका दाह संस्कार हुआ वहां पर स्पूत बनाकर वि.सं. 1525 वैषाख वदी 6 को श्री जिनभद्रसूरि से इसकी प्रतिश्ठा करवाई। तीर्थ की तरफ से स्पूत के स्थल पर वि.सं. 2000 में आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि दादावाडी का निर्माण करवाया। जिसमें आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि की मूर्ति स्थापित की गई। जिसकी प्रतिश्ठा वि.सं. 2008 माघ षुक्ल प्रतिपदा गुरूवार को श्री जिनरत्नसूरि ने करवाई। आखिर लांछी बाई के आग्रह पर इनके भाई मालाषाह ने इसकी तरफ से मंदिर बनाकर उसमें मूलनायक के रूप में 13 वंे जैन तीर्थन्कर श्री विमलनाथजी की मूर्ति वि.सं. 1512 में तपागच्छ के श्री हेमविमलसूरिजी के करकमलो से प्रतिश्ठिा करवा दी। तबसे यह जैन मंदिर श्री विमलनाथजी एवं लांछी बाई मंदिर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करने लगा। मंदिर के वि.सं. 1512 में निर्माण होने से वि.सं. 1667 तक मंदिर में कई निर्माण कार्य होने सम्बंधी षिलालेख विघमान है। तब तक यह मंदिर श्री विमलनाथजी मंदिर के रूप में प्रसिद्ध रहा।
इस मंदिर के मूलनायक भगवान श्री विमलनाथजी की मूर्ति के सम्भवतः खंडित होने आदि अन्य कारणों से उसके स्थान पर प्रथम तीर्थन्कर श्री आदिनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित होने पर यह मंदिर तब से वर्तमान श्री आदिनाथजी का मंदिर एवं लांछी बाई मंदिर के नाम से आज जन-जन की आस्था का धार्मिक स्थल बना हुआ है। मंदिर उत्तराभिमुख है और उसमें श्रृंगार मंडप, नवचौकी, सभा मंडप, मूढ मंडप, मूलगम्भारा बना हुआ है। मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा के आजू-बाजू श्री चन्द्रप्रभजी एवं श्री पदमप्रभजी की प्रतिमाऐं प्रतिश्ठित है। मंदिर के सभा मंडप में अन्य कई प्राचीन जैन प्रतिमाओं के अतिरिक्त परिकर सहित दो वि.सं. 1203 के षिलालेखों वाली काउस्सग प्रतिमाऐ विघमान है।