जैन तीर्थ नाकोड़ा परिसर मे पूर्व की ओर जसोल से नाकोड़ा मे पक्के सड़क मार्ग से आते समय तीर्थ की दक्षिण की पहाड़ी श्रृंखला की ओट में भैरवबन्धा के पास ‘श्री लक्ष्मीसूरिजी का गुरू मंदिर’ बना हुुआ है। यह नाकोड़ा तीर्थोद्दारक आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरिश्वरजी के शिष्यरत्न आचार्य श्री लक्ष्मीसूरिजी की पावन स्मृति में बनाया गया है। जिसकी प्रतिष्ठा पन्यास प्रवर श्री रत्नाकर विजयजी ने वि.सं. 2055 फाल्गुन शुक्ला 6 रविवार 21 फरवरी 1999 में करवाई।

 

आचार्य श्रीमद्विजय लक्ष्मीसूरिजी ने वर्षों तक जैन तीर्थ नाकोड़ा की सेवा की और इनका कालधर्म वि.सं. 2051 पोष कृष्णा 1 तदनुसार 2 फरवरी 1995 को यहां होने पर, इनकी स्मृति में तीर्थ ट्रस्ट मण्डल ने इनके अंतिम दाह संस्कार स्थल पर संगमरमर के पाषाणों का सुन्दर 'श्री लक्ष्मीसूरि गुरू मंदिर' बनाया। जो जमीन तल से चालीस सीढियों की चढाई पर समचौरस चबूतरे पर बना हुआ है। यह गुरू मंदिर उत्तराभिमुख है। मंदिर के अन्दर चार स्तम्भों एवं तीन तोरणों वाली छतरी के बीच मे अकबर प्रतिबोधक आचार्य श्री हीरसूरीश्वरजी की, इनके दाहिनी ओर अनुयोगाचार्य श्री हितविजय जी एवं बाई और आचार्य श्री हिमाचलसूरीश्वरजी की मूर्ति प्रतिष्ठित की हुई है। इन तीनों प्रतिमाओं के चरणो में कमल फूल के ऊपर आचार्य श्री लक्ष्मीसूरिजी की चरण पादुका प्रतिष्ठित की हुई है। आचार्य श्री लक्ष्मीसूरिजी के इस गुरू मंदिर स्थल का तीर्थ की तरफ से श्री हिमाचलसूरि वाटिका नामकरण कर रखा है। गुरू मंदिर के नीचे पश्चिम की ओर एक कोने में महान तपस्वी साध्वी श्री दिव्याप्रभा श्रीजी की छतरी उनके नाकोड़ा तीर्थ पर 79 उपवास करते हुए कालधर्म होने के बाद अंतिम संस्कार स्थल पर बनाई है। जिसमें आपश्री के चरण स्थापित किए गए है।

 

श्री लक्ष्मीसूरिजी गुरू मंदिर पहाड़ी की ओट में काले बादामी पहाड़ी चट्टानों पर श्वेत संगमरमर के पाषाणों का बना होने से अत्यधिक सुन्दर लगता है। रात्रि में जब यह बिजली की रोशनी में जगमगाता है तो दर्शक - यात्री देखकर खूब आनन्दित होते है। तीर्थ की यात्रा पर आने वाले यात्री आचार्य श्री लक्ष्मीसूरिजी की स्मृति में बने इस गुरू मंदिर के दर्शन अवश्य करते है।